Wednesday, March 11, 2009
आ जा रंग ले
आ जा मुझको भी
अपने संग ले
आ जा रंग ले
अंग-अंग.
बरसें अबीर-गुलाल के मेह
भीगे सब कुछ
भीगे नेह, देह
आ जा रंग ले अंग-अंग.
Saturday, March 7, 2009
खोलो देह-बंध मन समाधि-सिंधु हो जाए. इतना मत दूर रहो गंध कहीं खो जाए..
इतना मत दूर रहो
गंध कहीं खो जाए.
आने दो आंच
रोशनी न मंद हो जाए.
देखा तुमको मैंने कितने जन्मों के बाद
चंपे की बदली सी धूप-छांह आसपास
घूम सी गई दुनिया यह भी न रहा याद
बह गया है वक्त लिए मेरे सारे पलाश
ले लो ये शब्द
गीत भी कहीं न सो जाए.
आने दो आंच
रोशनी न मंद हो जाए.
उत्सव से तन पर सजा ललचाती मेहराबें
खींच लीं मिठास पर क्यों शीशे की दीवारें
टकराकर डूब गईं इच्छाओं की नावें
लौट-लौट आई हैं मेरी सब झनकारें
नेह फूल नाजुक
न खिलना बंद हो जाए.
आने दो आंच
रोशनी न मंद हो जाए.
क्या कुछ कमी थी मेरे भरपूर दान में
या कुछ तुम्हारी नजर चूकी पहचान में
या सब कुछ लीला थी तुम्हारे अनुमान में
या मैंने भूल की तुम्हारी मुस्कान में
खोलो देह-बंध
मन समाधि-सिंधु हो जाए.
आने दो आंच
रोशनी न मंद हो जाए.
इतना मत दूर रहो
गंध कहीं खो जाए.
गंध कहीं खो जाए.
आने दो आंच
रोशनी न मंद हो जाए.
देखा तुमको मैंने कितने जन्मों के बाद
चंपे की बदली सी धूप-छांह आसपास
घूम सी गई दुनिया यह भी न रहा याद
बह गया है वक्त लिए मेरे सारे पलाश
ले लो ये शब्द
गीत भी कहीं न सो जाए.
आने दो आंच
रोशनी न मंद हो जाए.
उत्सव से तन पर सजा ललचाती मेहराबें
खींच लीं मिठास पर क्यों शीशे की दीवारें
टकराकर डूब गईं इच्छाओं की नावें
लौट-लौट आई हैं मेरी सब झनकारें
नेह फूल नाजुक
न खिलना बंद हो जाए.
आने दो आंच
रोशनी न मंद हो जाए.
क्या कुछ कमी थी मेरे भरपूर दान में
या कुछ तुम्हारी नजर चूकी पहचान में
या सब कुछ लीला थी तुम्हारे अनुमान में
या मैंने भूल की तुम्हारी मुस्कान में
खोलो देह-बंध
मन समाधि-सिंधु हो जाए.
आने दो आंच
रोशनी न मंद हो जाए.
इतना मत दूर रहो
गंध कहीं खो जाए.
Thursday, March 5, 2009
फिर भी है वह अनुपम सुंदर.
द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार.
रूप नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार.
सांसारिक व्यवहार, न ज्ञान
फिर भी मैं करता हूं प्यार.
शक्ति, न यौवन पर अभिमान
फिर भी मैं करता हूं प्यार.
कुशल कलाविद हूं, न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूं प्यार.
केवल भावुक, दीन, मलीन
फिर भी मैं करता हूं प्यार.
मैंने कितने किए उपाय
किंतु न मुझसे छूटा प्रेम.
सब विधि था जीवन असहाय
किंतु न मुझसे छूटा प्रेम.
सब कुछ साधा जप-तप-मौन
किंतु न मुझसे छूटा प्रेम.
कितना घूमा देश-विदेश
किंतु न मुझसे छूटा प्रेम.
तरह-तरह के बदले वेश
किंतु न मुझसे छूटा प्रेम.
उसकी बात में छल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर.
माया ही उसका संबल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर.
वह वियोग का बादल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर.
छाया जीवन आकुल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर.
केवल कोमल, अस्थिर नभ-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर.
वह अंतिम भय-सी, विस्मय-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर.
Wednesday, March 4, 2009
शमशेर बहादुर की प्रेयसी
तुम मेरी पहली प्रेमिका हो
जो आईने की तरह साफ
बदन के माध्यम से ही बात करती हो
और शायद (शायद)
मेरी बात साफ-साफ
समझती भी हो.
प्यारी,
तुम कितनी प्यारी हो!
वह कांसे का चिकना बदन
हवा में हिल रहा है
हवा हौले-हौले नाच रही है,
इसलिए........
तुम भी मेरी आंखों में
(स्थिर रूप में साकार रहते हुए भी)
हौले-हौले अनजाने रूप में
नाच रही हो
हौले-हौले
हौले-हौले यह कायनात हिल रही है
...................
गंदुमी गुलाब की पांखुड़ियां
खुली हुई हैं
आंखों की शबनम
दूर
चारों तरफ हंस रही है
यह मीठी हंसी
तुम्हारा सुडौल बदन
एक आबशार (जल प्रपात) है
जिसे मैं
एक ही जगह खड़े देखता हूं
ऐसा चिकना और गतिमान
ऐसा मूर्त सुंदर उज्ज्वल
...........
यह पूरा
कोमल कांसे में ढला
गोलाइयों का आईना
मेरे सीने से कसकर भी आजाद है
जैसे किसी खुले बाग में
सुबह की
सादा भीनी-भीनी हवा
यह तुम्हारा ठोस बदन
अजब तरीके से मेरे अंदर बस गया है.
Sunday, March 1, 2009
मां का आंचल
तपते मरु में, राहत देती माँ बरगद-सी छांव है.
दया-से उफनते जीवन में पार लगाती नाव हैं.
बेटा-बेटी के होने पर नारी माँ का दर्जा पा जाती.
फिर सारे जीवन भर उन पर ममता-रस बरसाती.
घर के शोर-शराबे में चुप होकर सब कह जाती.
त्याग तपस्या घर से अपने साधिका बन जाती.
लगे भूख बच्चे को मां सब्जी-रोटी बन जाती.
धूप लगे जो बचे को मां छांव सुहानी हो जाती.
जीवन में ही समग्र चेतन परमेश्वर बन जाती है.
मां-सा कहीं न मिलता, तभी तो ईश्वर कहलाती.
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