Saturday, March 7, 2009

खोलो देह-बंध मन समाधि-सिंधु हो जाए. इतना मत दूर रहो गंध कहीं खो जाए..

इतना मत दूर रहो
गंध कहीं खो जाए.

आने दो आंच

रोशनी न मंद हो जाए.

देखा तुमको मैंने कितने जन्मों के बाद

चंपे की बदली सी धूप-छांह आसपास

घूम सी गई दुनिया यह भी न रहा याद

बह गया है वक्त लिए मेरे सारे पलाश

ले लो ये शब्द

गीत भी कहीं न सो जाए.

आने दो आंच

रोशनी न मंद हो जाए.

उत्सव से तन पर सजा ललचाती मेहराबें

खींच लीं मिठास पर क्यों शीशे की दीवारें

टकराकर डूब गईं इच्छाओं की नावें

लौट-लौट आई हैं मेरी सब झनकारें

नेह फूल नाजुक
न खिलना बंद हो जाए.
आने दो आंच
रोशनी न मंद हो जाए.

क्या कुछ कमी थी मेरे भरपूर दान में

या कुछ तुम्हारी नजर चूकी पहचान में

या सब कुछ लीला थी तुम्हारे अनुमान में

या मैंने भूल की तुम्हारी मुस्कान में

खोलो देह-बंध

मन समाधि-सिंधु हो जाए.

आने दो आंच

रोशनी न मंद हो जाए.

इतना मत दूर रहो

गंध कहीं खो जा
ए.

2 comments:

  1. tasveer dekh kar hi rachna ki sunderta kaa bodh ho gaya tha ati ssunder abhivyakti hai shabdshilpi ko mera naman

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